मंगलवार, 4 जून 2019

असल छत्तीसगढ़िया मुख्यमंत्री भूपेश बघेल : अभी पुरखा के सपना पूरा होना बाकी हे !

वैभव बेमेतरिहा, रायपुर। मध्यप्रदेश से अलग राज्य बनने के 19 साल बाद मैं व्यक्तिगत तौर पर अनुभव कर पा रहा हूँ कि अब तक की चार सरकारेें मैंने जो देखी है उसमें असल छत्तीसगढ़िया मुख्यमंत्री का अनुभव भूपेश बघेल में ही कर पा रहा हूँ. यह बात मैं मुख्यमंत्री की तारीफ में नहीं कह रहा हूँ बल्कि अभी तक के उनके नीति-नियत में अगर शराबबंदी को अलगकर अन्य कार्यों की ओर का ज़िक्र करूँ तो यही दिख रहा है.

मसलन अगर छत्तीसगढ़ के चार चिन्हारी…नरवा-गरवा, घुरवा-बारी का ही अनुभव करके देखें तो यह सिर्फ नारा ही नहीं लगता बल्कि इससे एक जुड़ाव हर छत्तीसगढ़ियों को होता है. ये और बात है कि छत्तीसगढ़ की असल चिन्हारी यहाँ की बोली-भाषा है. वह बोली-भाषा जो बीते 19 सालों से अभी तक उपेक्षित रहा है. जिसे बीते सरकार ने सिर्फ राजभाषा का दर्ज दें खान-पूर्ति तक ही सीमित रखा. उसे आगे बढ़ाने का काम नहीं किया. ये और बात है कि छत्तीसगढ़ी का इस्तेमाल सरकारी विज्ञापनों में खूब हुआ, लेकिन पढ़ाई-लिखाई या सरकारी काम-काज में नहीं. क्योंकि छत्तीसगढ़ी हो या गोंडी-हल्बी या कोड़ूक-सरगुजही यह नेताओं के भाषणों की भाषा यहाँ बनकर रह गई है.

खैर यहाँ भाषा पर बात होगी तो मैं विषय केन्द्रित नहीं रह पाऊँगा. इसलिए फिलहाल असल छत्तीसगढ़िया भूपेश बघेल क्यों मुझे लग रहा है यह बताना जरूरी है. दरअसल अभी तक यही हो रहा था कि छत्तीसगढ़िया लोग खुद को दबे-कुचले हुए पा रहे थे. अधिकारियों की तानशाही और गैर छत्तीसगढ़ियापन वाला रवैय्या इस प्रदेश में इस तरह हावी हो रहा था कि उसमें मूल छत्तीसगढ़िया खुद को उपेक्षित महसूस कर रहे थे. भूपेश बघेल के मुख्यमंत्री बनने के बाद खास तौर पर गाँव के लोगों को ये लगा है कि हो न हो इस नेता में छत्तीसगढ़ियापन तो झलकता है.
यहाँ बात भूपेश बघेल की तारीफ कि नहीं बल्कि मैंने अभी तक जो देखा वहीं लिख रहा हूँ. क्योंकि भूपेश बघेल जब बतौर मुख्यमंत्री छत्तीसगढ़ी में शपथ नहीं ले पाए थे तो उनसे पहली प्रेसवार्ता में सवाल करने वाला मैं ही था कोई और नहीं. खैर सोचने वाले जो भी सोचे लेकिन उन्हें यह बात तो माननी पड़ेगी, उन अधिकारियों की तरह जो अभी तक मंत्रालय से छत्तीसगढ़ियों को दरकिनार करके रखे थे. मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की कोशिश यही होती है कि अधिक से अधिक संवाद अपनी मातृभाषा छत्तीसगढ़ी में ही करेें. वैसे जब राहुल गांधी की मौजूदगी में नवा रायपुर में पहला कार्यक्रम सरकार बनने के बाद हुआ था तो उसमें बघेल से लेकर महंत तक ने छत्तीसगढ़ी में भाषण दिया था. इसके बाद यह भूपेश बघेल के छत्तीसगढ़ियापन का ही असर था कि विधानसभा के भीतर पहली बार मुख्यमंत्री से लेकर विधानसभा अध्यक्ष और नेता-प्रतिपक्ष सहित बड़ी संख्या में विधायकों ने छत्तीसगढ़ी में शपथ लिया था. उन विधायकों ने भी जिनकी मातृभाषा छत्तीसगढ़ी नहीं है. मैं यही कह रहा हूँ कि भूपेश बघेल के छत्तीसगढ़ियापन में कोई बनवाटीपन नहीं दिखता पूर्व के सरकारों की तरह.
ऐसी बात नहीं कि भूपेश बघेल ही छत्तीसगढ़ी में संवाद करते हैं कोई और नहीं. उनसे बेहतर छत्तीसगढ़ी और मीठ छत्तीसगढ़ी अजीत जोगी बोलते हैं. वैसे ये भी बात नहीं कि जोगी शासनकाल में छत्तीसगढ़ियापन न झलका हो. उस दौर में ही आंशिक रूप से छत्तीसगढ़ी में शिक्षा की शुरुआत हुई थी. वैसे भी स्वभाव और प्रभाव से जो लोकप्रियता ठेठ छत्तीसगढ़िया अंदाज वाले नेता के रूप में अजीत जोगी को प्राप्त है फिलहाल वैसा किसी को नहीं. लेकिन शासन तंत्र में छत्तीसगढ़ियापन को स्थापित जोगी नहीं कर पाए थे. और यही स्थिति तीन बार के मुख्यमंत्री रहे डॉ. रमन सिंह के साथ रही. उनके शासकाल में छत्तीसगढ़ी भाषा को राजभाषा का दर्जा तो मिला. लेकिन वे अपने 15 साल के शासनकाल में ठेठ छत्तीसगढ़ियापन नहीं ला पाए. जबकि रमन सिंह भी छत्तीसगढ़ी में बखूबी भाषण देते हैं. लेकिन एक सच्चाई जो पूर्व के सरकारों मुझे खलती है रही वह है शासन तंत्र के भीतर का छत्तीसगढ़ियापन.

यहाँ बात छत्तीसगढ़ी योजनाओं की नहीं है. क्योंकि जोगी शासन काल में जोगी डबरी एक योजना भी चली थी और रमन सिंह भी को चावल योजना के बाद चाउर वाले बाबा का तमगा मिला था. लेकिन योजनाओं से इतर बात छत्तीसगढ़ियापन को लेकर है, प्रशासन के भीतर छत्तीसगढ़ी की महत्ता को लेकर है. उसी महत्ता का जिक्र मैं यहाँ कर रहा हूँ. कम से कम भूपेश बघेल ने तो कहा कि अधिकारी छत्तीसगढ़ी में संवाद करें. वैसे करे तक सीमित रखने से काम नहीं चलेगा बल्कि इसे करते हुए दिखाना और बताना भी पड़ेगा.

अब बात उस पहल की ओर जहाँ से नीति और नियत को लेकर एक भरोसा मेरे भीतर मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को लेकर जागा है. गढ़बो नवा छत्तीसगढ़ में एक निर्णायक कदम सरकार उठाने जा रही है यह जानकारी मिली है. जानकारी के मुताबिक सरकार नया रायपुर का नाम अब नवा रायपुर करने जा रही है. यही नहीं अब सभी जगह नया रायपुर की जगह नवा रायपुर ही लिखा जाएगा. सरकार का यह कदम छत्तीसगढ़ में पुरखों के सपनों को पूरा करने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम साबित हो सकता है. क्योंकि पूर्व की सरकार ने छत्तीसगढ़ के पुरखों की उपेक्षा में कहीं कोई कमी नहीं की है. ऐसे में छत्तीसगढ़ के प्रथम स्वप्नदृष्टा डॉ. खूबचंद के साथ भूपेश बघेल न्याय करेंगे ऐसी उम्मीद मैं कर सकता हूँ. उम्मीद है कि छत्तीसगढ़ के महानायक वीरनारायण सिंह, गैंद सिंह, गुण्डाधूर, महाराजा प्रवीरचंद भंजदेव, गुरु घासीदास, मिनी माता, पं. सुंदरलाल शर्मा, ठा. प्यारेलाल, बैरिस्टर छेदीलाल, चंदूलाल चंद्राकर, पं. श्यामलाल के सपनों को साकार भूपेश बघेल करेंगे.
उम्मीद यह भी कर सकता हूँ कि भूपेश बघेल के कदम नवा रायपुर तक सीमित नहीं रहेंगे, बल्कि आगे बढ़ते हुए जल्द ही वे अपने, हमारे पुरखों के सपनों का छत्तीसगढ़ गढ़ेंगे.  नया रायपुर से नवा रायपुर अटल नगर के भीतर प्रतिमाओं से लेकर चौक-चौराहों के नाम भी हमें अपने पुरखों के नाम पर रखने होंगे जिन्होंने पृथक छत्तीसगढ़ का सपना देखा था.  नई पीढ़ी को उन पुरखों के बारे में बताना होगा जो अपने प्रदेश में भूला दिए गए हैं. सरकार की योजनाओं में छत्तीसगढ़ के उन विभूतियों के नाम रखने होंगे जिन्हें हमने अभी तक राष्ट्रीय पटल पर स्थापित ही नहीं किया है. वैसे सबसे बड़ी उम्मीद प्रदेश के मुखिया होने के नाते भूपेश बघेल से यह भी मेरी है कि जल्द प्रदेश के स्कूलों में मातृभाषा में पढ़ाई वे शुरू कराएंगे. जहाँ हल्बी-गोंडी, सरगुजी, कोड़ूक को सम्मान मिलेगा. जहाँ छत्तीसगढ़ी में सरकारी काम-काज होंगे. जहाँ हमारी मातृभाषा में बस्तर लेकर सरगुजा तक चौक-चौराहों के नाम लिखें होंगे. जहाँ हमारे पुरखों के पदचिन्ह हमें मिलेंगे. जहाँ हर कदम पर हम सबकों गर्व से यही एहसास होगा, भारत माँ के रतन बेटा बढ़िया अँव ग….मैं छत्तीसगढ़िया अँव ग…

2 टिप्‍पणियां:

  1. तोर बात बिल्कुल 16 आना सच हे वैभव भाई, बहुत बढ़िया। सरकारी पटल में अब छत्तीसगढ़ी के अस्तित्व हा दिखत हे।

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